अपरिचय
इस बार की होली पिछली कई होलियों से अलग थी. मद्यपान या किसी भी प्रकार के नशे से सर्वथा दूर हमारा परिवार परंपरा के निर्वाह के तौर पर ठंढाई के साथ अल्पांश में भांग के सेवन की स्वतंत्रता होली के अवसर पर ले लिया करता है. स्कूली शिक्षा के अंतिम पड़ाव पर खड़ी मेरी बिटिया ने बमुश्किल चार घूँट ठंढाई के ले लिए . इस घोल का अप्रत्याशित रूप से त्वरित असर हुआ और वह अपनी रौ में बह निकली . तक़रीबन चार घंटे तक वह लगातार बोलती रही, ठहाके लगाती रही और अपने जीवन दर्शन से सबों को परिचित करा देने की कोशिश करती रही. उच्छृंखलता और अश्लीलता से दूर उसकी बातों में एक तरफ जहाँ बाल मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी वहीं दूसरी तरफ गंभीरता और परिपक़्वता का एक विलक्षण मिश्रण था.अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, बाधाओं, सीमाओं और अड़चनों पर की गयी उसकी बेबाक टिप्पणी मुझे आह्लादित करने के साथ साथ मेरे अंदर विस्मय का बीजारोपण भी कर रही थी. मैं दंग था यह सोच कर कि एक पिता अपनी संतान से इतना अपरिचित कैसे रह सकता है? जिस पौधे को सींच कर इतना बड़ा किया है, उसकी विशेषताओं और विशिष्टताओं से एक माली अनजान कैसे रह सकता है? इस कि…
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