हिंदी दिवस

   चौदह सितम्बर का सरकारी कैलेंडर में विशेष महत्त्व है.  हिंदी को प्राणवायु देने के लिए हर कार्यालय, हर प्रतिष्ठान एक आडम्बरपूर्ण अनुष्ठान का आयोजन करता है, प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, कुछ नए सांख्यिकीय आंकड़े गढ़े जाते हैं और फिर हिंदी को एक असहाय वृद्धा की तरह अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है. इन अनुष्ठानों का शृंगारिक औचित्य मात्र है क्योंकि राजकीय प्रश्रय ने हिंदी का भला तो बिलकुल नहीं किया है. हाँ, इतना अवश्य हुआ कि एक सर्वांग स्वस्थ शिशु माता-पिता के अतिशय लाड़ की वजह से गोद में ही पड़ा रह गया और उन लक्ष्यों को पाने की कोशिश भी नहीं कर सका जिन्हें पा लेना उसके लिए एकदम आसान होता. 
    बॉलीवुड और वैश्वीकरण से उपजे बाजार तथा सर्वव्यापी-सदैवव्यापी मीडिआ ने  हिंदी भाषा को वास्तविक अर्थों में सशक्त-समृद्ध किया है.  बाजार और सिनेमा के झंझावातों ने हिंदी को न केवल कठिनाइयों-अड़चनों से जूझने की ताकत दी वरन एक खास किस्म का लचीलापन भी दिया जिसकी वजह से अधिकाधिक नए शब्दों को अपनाने की सदाशयता हिंदी में आ सकी. संस्थाओं और मठाधीशों के शुद्धिकरण के आग्रह के उलट सुगम-सहज-सुबोध बनने की हिंदी की इसी चाहत ने इसे हर वर्ग में लोकप्रिय बनाया. प्रधानमंत्री का यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि डिजिटल दुनिया में हिंदी तीन प्रमुख भाषाओँ में से एक होगी.
 मेरी मानें तो हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने नौनिहालों को प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में देने की है. तत्पश्चात माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में हिंदी को प्रतिनिधि स्थान देने की बड़ी चुनौती होगी. मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि दक्षिण भारत के लोगों में द्वितीय-तृतीय भाषा सीखने की ललक व योग्यता उत्तर भारतीयों की अपेक्षा अधिक होती है. ऐसे में हिंदी को विभिन्न पाठ्यक्रमों में शामिल करना कठिन नहीं होगा बशर्ते कि इस कदम के लाभ से समाज के सभी वर्ग को भली-भांति परिचित करा दिया जाये.

                                                                ~ नीरज पाठक 
                                                                   जी- 453 -सी, राज नगर- II, 
                                                                   नयी दिल्ली- 110077.


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