खुशियों का गुब्बारा

  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमें बहुत कुछ सीखना पड़ता है और कई समझौते भी करने पड़ते हैं. अचानक हमें महसूस होता है कि कुछ लोग हमारी जिंदगी में उत्पात मचा रहे हैं. फिर भी हमें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना पड़ता है. यही तो समझौता है. यह नियंत्रण न हो तो हम छोटी-छोटी और अनावश्यक बातों पर ही लड़ते-झगड़ते रह जायेंगे. जीवन का यह उद्देश्य नहीं है. जीवन का उद्देश्य तो लोगों के बीच खुशियाँ बाँटते हुए आगे बढ़ना है. हम अपने लिए बड़े लक्ष्य रखें और उन्हें हासिल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें, यही जीवन है. मानव के रूप में जन्म लिया है तो अन्य प्राणियों से बेहतर प्रदर्शन करना ही होगा. समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करना और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक चुनौती छोड़कर जाना ही हमारा ध्येय होना चाहिए. यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि विलासिता और ऐश्वर्य के भौतिक साधन जुटाकर ही हम आदर्श नहीं बन सकते. इतिहास साक्षी है कि बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं और नगर सेठों की अपेक्षा उनलोगों को ज्यादा मान-सम्मान मिला जिन्होंने समाज की बेहतरी की चिंता की . आपका वैभव आपको क्षणिक प्रतिष्ठा दिला सकता है परन्तु आपकी विनम्रता, निष्ठा और संवेदना लोगों के ह्रदय में आपके लिए स्थाई स्थान  बनाती है. पर यह इतना आसान भी नहीं है. मानव मन बहुत कमजोर है. छोटे-छोटे प्रलोभनों और फायदों के लिए यह बड़ी आसानी से अपना पाला और चोला बदल लेता है. गलाकाट प्रतिद्वंद्विता के ज़माने में इस प्रवृत्ति के औचित्य को नकारा भी  नहीं जा सकता . 'सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट' जब जीवन का मन्त्र हो तो स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने की छूट तो मिल ही जाती है. और यहीं से मनुष्य का क्षरण शुरू हो जाता है . वह अपने पथ से विचलित हो जाता है और मूल्यों की तिलांजलि दे देता है. यह सब कुछ जानते-बूझते हुए और इस विचलन के आकर्षक और सम्मोहक पुरस्कारों से परिचित रहते हुए भी अगर कोई व्यक्ति इन प्रलोभनों व तृष्णाओं को धता बताते हुए ईमानदारी और निष्ठा के रास्ते पर चलने का संकल्प ले लेता है तो वह अपने जीवनकाल में ही अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर लेता है.एक बार वरिष्ठ अधिकारियों के लिए एक कार्यशाला आयोजित की गयी. इसमें साठ ऐसे प्रतिभागी थे जो एक-दूसरे को जानते थे. तनाव और अवसाद प्रबंधन पर चर्चा होनी थी. अचानक प्रशिक्षक ने घोषणा की कि इस सत्र में पढाई नहीं होगी, हम सभी खेलेंगे. सब की बाँछें खिल गई. सब को एक-एक गुब्बारा दिया गया और कहा गया कि अपने गुब्बारे पर मार्कर से अपना नाम लिखकर गुब्बारे को  दूसरे कमरे  में रख दें . सब ने ऐसा ही किया. फिर प्रशिक्षक ने कहा कि मेरा इशारा पाते ही आप सभी उस कमरे में जाएँ और पांच मिनट के अंदर अपने नाम का गुब्बारा लेकर बाहर निकलें. सभी लोग तेजी से उस कमरे में घुसे और पागलों की तरह अपने नाम का गुब्बारा ढूंढने लगे. कईयों के बीच तो हाथापाई भी हो गई पर इस अफरा-तफरी में किसी को भी अपने नाम का गुब्बारा नहीं मिला. पांच मिनट खत्म होते ही सबको बाहर बुला लिया गया. प्रशिक्षक ने पूछा, ' अरे ! क्या हुआ, आप सभी खाली हाथ क्यों हैं ? क्या किसी को अपने नाम का गुब्बारा नहीं मिला ?' एक प्रतिभागी ने मायूसी से जवाब दिया -'नहीं, हमने बहुत ढूँढा पर हमेशा किसी और के नाम का ही गुब्बारा हमारे हाथ आया और समय समाप्त हो गया'

'' कोई बात नहीं, आप लोग एक बार फिर कमरे में जाइये , पर इस बार आपको जो गुब्बारा मिले उसे अपने हाथ में ले लें और उस व्यक्ति को दे दें जिसका नाम उसपर लिखा है'', प्रशिक्षक ने कहा.
एक बार फिर सभी कमरे में गए पर इस बार सब शांत थे. और कमरे में अफरा-तफरी भी नहीं मची. सभी ने एक दूसरे को उनके नाम के गुब्बारे सौंपे और तीन मिनट में ही बाहर निकल आये.
प्रशिक्षक ने अपना सम्बोधन शुरू किया, ''हम सबों की जिंदगी में यही हो रहा है. हम सभी सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं....... इस बात की परवाह किये बगैर कि हम किस तरह  औरों की मदद कर सकते हैं . पागलों की तरह सुबह से शाम तक हम अपने हिस्से की ख़ुशी ढूंढते रहते हैं पर हाथ कुछ भी नहीं आता. हमारी ख़ुशी दूसरों की ख़ुशी में छिपी है. जब हम औरों को उनकी खुशियाँ देना सीख जायेंगे तो हमारी ख़ुशी भी दुगुनी-चौगुनी हो जाएगी........
प्रशिक्षक का सम्बोधन जारी था परन्तु सारे अधिकारी अपने जीवन को सुन्दर बनाने की सीख ले चुके थे.

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