रेत के कण

बचपन में दुर्गा पूजा की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करते रहते थे हम. नवमी के दिन नए सिले कपड़े मिलते थे और उन्हें धारण कर हम सभी भाई बहन रिक्शा पर घूमने जाते थे ......रात के एक डेढ़ बजे तक सभी पंडालों में जा प्रतिमा दर्शन  का कार्य संपन्न कर लेने की बाध्यता होती थी क्योंकि अगले दिन विसर्जन होना होता था. एक अलौकिक वातावरण का निर्माण होता था और समाज के सभी तबके के लोग , स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े ....बड़े उत्साह के संग उत्सव में सम्मिलित होते थे . ३०-३५ साल पहले के छोटे शहर की ऐसी कई यादें बरबस कुरेदती रहती हैं, नास्टैल्जिया के भाव रचती रहती हैं . भौतिक प्रगति के प्रतीक चिह्न हममें से अधिकांश लोगों की जिंदगी में नहीं होते थे उस वक्त. हमारी छोटी छोटी हसरतें हुआ करती थीं और उन हसरतों का पूरा हो जाना हमें न केवल रोमांचित करता था वरन एक बादशाहत सी अनुभूति भी देता था . टिफिन(भोजनावकाश) के दौरान बाबूजी से मिलनेवाली चवन्नी मेरे बाल मन में सम्पन्नता की कहानी लिखती थी .......मोहन चाट वाला अपने चटपटे व्यंजनों  के साथ स्कूल के गेट पर इंतजार कर रहा होता , घंटी बजी नहीं कि बच्चे पूरी शक्ति के संग जयघोष करते एक-दो-तीन......गोल-गप्पे,चाट-पापड़ी,आइस क्रीम , इमली, पाचक.....हर ठेले पर भीड़ .............आनंद की वह अनुभूति  मुझे मैक डी और पिज़्ज़ा हट में दिखाई नहीं देती.  भीड़ की पहुँच से दूर होकर आज के मानव ने अपने लिए ऐश्वर्य के छोटे छोटे अभेद्य दुर्ग बना लिए और पैसे से खरीदी जाने वाली तमाम चीजें इकट्ठी कर ली . हमने अपने और अपने कुटुंब के लिए निजी उत्सव गढ़ लिए . सामुदायिकता से आने वाली पसीने की बू  और संक्रामकता ने हमें घोर स्वच्छतावादी बना दिया. हमारी मुट्ठी से रेत के ढेर सारे कण निकल गए , जिंदगी की इस छोटी पारी में उन कणों को सहेजने का जतन करना जरुरी है.

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