विरोधाभास

माँ के इलाज़ के क्रम में एम्स, दिल्ली में हूँ। भारत की विविधता और अनेकता में एकता की स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है यहाँ। सैकड़ों परिवारों को प्रतिदिन आरोग्य और खुशी का उपहार मिलता है। डॉक्टरों की निष्‍ठा और प्रतिबद्धता अनुकरणीय है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी यहाँ आकर अपने को सुरक्षित हाथों में पाता है। निस्संदेह एक आदर्श सरकारी संस्थान ऐसा ही होना चाहिये। यहाँ हरेक वॉर्ड, हरेक बेड पर मानवीय सम्बंधों की अनूठी कहानियाँ विचरती हैं। पूसा, समस्तीपुर से आया राकेश (बदला हुआ नाम) अपने समवयस्क पड़ोसी की तीमारदारी के लिये कूच विहार की अपनी 6000/- की नौकरी छोड़ आया है तो वहीं देवरिया का इरफ़ान अपनी भाभी की सेवा में दो महीने से लगा है। भाई नौकरी छूट जाने की विवशता के कारण नहीं आ पाया अपनी पत्‍नी के साथ .........................छोटा स्टोव, एक दरी और जरूरी सामानों की एक गठरी के साथ खुले आसमान के नीचे समय गुजारते दम्पतियों - परिवारों के चेहरों की हताशा उनकी आँखों में छिपी आशा की किरणों को विचलित नहीं कर पाती, इसके पीछे कहीं न कहीं एक-दूसरे के प्रति जीने-मरने का उनका संकल्प और ईश्वर में उनकी गहरी आस्था है।खर्चने को बहुत कुछ न होने के बावज़ूद देने को शुभकामना और सद्‌भावना का एक असीम भण्डार है उनके पास जो उन्हें सह-अस्तित्व के सिद्धांतों में विश्‍वास करना सिखाता है। ये उन क्षेत्रों से आने वाले लोग हैं जो विकास और प्रगति के विभिन्न प्रतिमानों पर खड़े नहीं उतरते परंतु सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों के मामले में समझौता नहीं कर पाते। और शायद इसीलिये विकास के मानदंडों पर फिसलते चले जाते हैं। महानगरों के वृद्धाश्रमों में गुंजायमान सिसकियाँ अनेकानेक उच्‍चपदस्थ सन्तानों की कहानियाँ कह जाती हैं।

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