अपरिचय 

        इस बार की होली पिछली कई होलियों से अलग थी. मद्यपान या किसी भी प्रकार के नशे से सर्वथा दूर हमारा परिवार परंपरा के निर्वाह के तौर पर ठंढाई के साथ अल्पांश में भांग के सेवन की स्वतंत्रता होली के अवसर पर ले लिया करता है. स्कूली शिक्षा के अंतिम  पड़ाव पर खड़ी मेरी बिटिया ने बमुश्किल चार घूँट ठंढाई के ले लिए . इस घोल का अप्रत्याशित रूप से त्वरित असर हुआ और वह अपनी रौ में बह निकली . तक़रीबन चार घंटे तक वह लगातार बोलती रही, ठहाके लगाती रही और अपने जीवन दर्शन से सबों को परिचित करा देने की कोशिश  करती रही. उच्छृंखलता और अश्लीलता से दूर उसकी बातों में एक तरफ जहाँ बाल मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी वहीं दूसरी तरफ गंभीरता और परिपक़्वता का एक विलक्षण मिश्रण था.अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, बाधाओं, सीमाओं और अड़चनों पर की गयी उसकी बेबाक टिप्पणी मुझे आह्लादित करने के साथ साथ मेरे अंदर विस्मय का बीजारोपण भी कर रही थी. मैं दंग था यह सोच कर कि एक पिता अपनी संतान से इतना अपरिचित कैसे रह सकता है? जिस पौधे को सींच कर इतना बड़ा किया है, उसकी विशेषताओं और विशिष्टताओं से एक माली अनजान कैसे रह सकता है? इस किशोर पौधे को अपने स्नेह के नियमित खुराक से अभिसिंचित करते हुए माली ने एक सुदृढ़ वटवृक्ष की कल्पना की थी परन्तु यह पौधा  इतनी सारी संभावनाओं और  झंझावातों को अपने ह्रदय में समेटे बैठा है - प्रशांत, नीरव ,निश्छल !
 
       आज के समय की शायद सबसे बड़ी त्रासदी यही है. हमारी भौतिक उपलब्धियों और आधुनिकता की अंधी दौड़ ने हमें इतना आत्मकेंद्रित कर दिया है कि हम भीड़ में भी बेगाने बने रहते हैं. युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े बच्चों से माता-पिता का अपरिचय एक गंभीर संकेत देता है. पिछले दशकों में शहरी मध्यवर्ग की क्रयशक्ति के संग-संग उसकी आवश्यकताएं और अपेक्षाएं भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी हैं. गरीबी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार से जूझते एक विकासशील देश के नव धनिकों के बीच पसरा निर्लज्ज उपभोक्तावाद न केवल सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के लिए काफी है बल्कि संसाधनों के समान वितरण को भी आपराधिक रूप से बाधित करता है. भरे हुए पेट को फिर-फिर भरने की इस अमानवीय प्रवृत्ति ने ही पारस्परिक अपरिचय को जन्म दिया है. मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच पाता हूँ कि घर से बाहर तक व्याप्त इस कृत्रिम या ओढ़े हुए अपरिचय ने मामूली  समस्यायों को नासूर  बन जाने दिया है. समृद्धि के बीच अवसाद, आनंद के अतिरेक के बीच असंतोष या फिर सामंजस्य के दिखावे के  अंदर पैठा वैमनस्य हमारी कुंठाओं का ही प्रतिफल हैं. नित्य प्रतिदिन हमें झकझोर देनेवाली आत्महत्या, बलात्कार, तलाक, रोड रेज़ और हिंसक आन्दोलनों की घटनाएँ इन्हीं कुंठाओं की मूर्त अभिव्यक्ति हैं. हर कीमत पर जीत जाने की हठधर्मिता ने हमें  पथभ्रष्ट तो  किया ही  है, मानवीय मूल्यों को भी स्खलित किया है.

       वक़्त आ गया है कि हम इस क्षरण को अविलम्ब रोक लें. अपरिचय के इस वातावरण को यथाशीघ्र समाप्त करें. पहले अपने कुटुंब के लोगों को धैर्यपूर्वक सुनें, उनकी जरूरतों-पसंद-नापसंद को समझें, प्रतिकूल परिस्थिति में उनके सिरहाने अपने शरीर के साथ(व्हाट्सएप्प की सहायता से नहीं !) उपस्थित रहें. और जब आप ऐसा कर पाने में सफल हो जाएँ तो अपनी इस सहृदयता और सौजन्य को अपने घर की चारदीवारी से बाहर ले जाकर अपने पड़ोसियों, मित्रों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों पर बिखेरना शुरू कर दें. अचानक हमें महसूस होगा कि हम  एक अमूल्य निधि एवं अकूत संपत्ति  के मालिक हैं. हमारी एक मुस्कराहट, मदद के लिए उठे हमारे हाथ का एक कोमल स्पर्श  और संवेदना-सिक्त एक प्रयास असंख्य लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने के बड़े कारण साबित हो सकते हैं. मानवमात्र के कल्याण के लिए जब हम ये सारे प्रयास कर रहे होंगे तो  हमारा अवचेतन मन प्रकृति,पर्यावरण,वातावरण और मानवेतर जीवों के प्रति हमारी जिम्मेवारियों की भी चिंता कर रहा होगा. वर्षा जल संरक्षण, वृक्षारोपण, ऊर्जा संचयन और संसाधनों के दुरुपयोग रोकने जैसे बड़े काम हम साधारण इंसानों को ही करना है, इनके लिए देवदूत नहीं आएंगे. प्रकृति और पर्यावरण से बढ़ता हमारा अपरिचय पृथ्वी पर जीवन को संकट में डालने वाला है. हम जितनी जल्दी सतर्क हो जाएँ उतना अच्छा.



        आइये, एक अभिनव शुरुआत करें. इस क्षणभंगुर जीवन में अपने सीमित संसाधनों का चतुरतापूर्वक दोहन करें. परिवार को एक महत्वपूर्ण संस्थान के रूप में पुनर्स्थापित करें. परिवार हमारे जीवन की धुरी है, केंद्रबिंदु है. अगर केंद्र ही संकट में आ गया तो विपर्यय को रोकना असंभव होगा. यह बहुत बड़ा काम है, बहुत बड़ा उद्देश्य है. सर्वप्रथम मन में घर कर चुके कलुष को निकाल बाहर करना होगा . बर्तन के अंदर की यह कालिख ठीक नहीं. पात्र-परिष्कार करना ही होगा.  ऊपर से माँजो न माँजो, अंदर की सफाई करनी ही होगी. अपनी उम्र चाहे जितनी भी हो गयी हो, एक बार फिर से शिशु बनना पड़ेगा. सरसों के पीले फूलों को देख कर आनंदित होना होगा, बच्चों के साथ ठहाके लगाने होंगे, ह्रदय और मस्तिष्क पर रखे बोझ को झटक कर दूर फेंकना होगा. एक निर्दोष उत्फुल्लता के साथ हम जीवन जीने का प्रण ले सकते हैं बशर्ते कि उसमें अपेक्षाओं का बंधन न हो.

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