ham bhi doshi

'वर्चस्व की भाषा'(समान्तर , 29 जनवरी 11) पढ़कर यूँ लगा मानो स्मृति ने मेरी और मेरे जैसे लाखों लोगों की वेदना को शब्द दे दिया हो . भारतवर्ष में प्रगति हासिल करने के लिए भारतीयता का त्याग करना प्राथमिक शर्त है . भाषा ही नहीं , आचरण के स्तर पर भी "पश्चिमी" होना और दिखना आधुनिकता और प्रगतिशीलता का पर्याय बन चुका है . चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या प्रशासन का , अंग्रेजी शासन करती है और भारतीय भाषाएँ  (जिनका नेतृत्व हिंदी के जिम्मे है) पिछलग्गू बनी हीनभावनाग्रस्त  होती रहतीं हैं . प्रशासन के शीर्ष पर बैठे लोग भी प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को जोर-शोर से हिंदी की बरसी मनाकर अपनी  संवेदनशीलता(!) का परिचय दे देते हैं . इसी प्रवृत्ति  का परिणाम है कि विज्ञान , औषधि , प्रौद्योगिकी आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुसन्धान और आविष्कार कर पुरस्कृत - सम्मानित होनेवाले लोगों में भारतीय नाम नहीं दिखते . दशकों से शिक्षाशास्त्रियों  ने मातृभाषा में शिक्षा प्रदान किये जाने पर बल दिया है परन्तु , दुर्भाग्यवश , उनकी संस्तुतियां हमारे नीति-निर्धारकों को प्रभावित करने में असमर्थ रही हैं . मातृभाषा में सुनने - सोचने - बोलने - पढ़ने का लाभ चीन-जापान-रूस ने उठाया और अपनी भाषा को गौरव , प्रतिष्ठा और सम्मान हासिल करने का जरिया बनाया . ऐसा क्या हुआ कि हम अपने इन निकटस्थ पड़ोसियों  से जरा सा भी प्रेरित न हो पाए ? मामले की तह में जाने की कोशिश करें तो एक षड़यंत्र की बदबू आती है . समाज के प्रभुवर्ग ने अपनी संततियों की जीत सुनिश्चित करने के लिए सोची समझी रणनीति के तहत अंग्रेजी का सहारा लिया . ये वे लोग थे जिनके हाथों में हमेशा सत्ता की चाबी रही . इन्होंने बड़े आराम से हमारे इतिहास तक को बदल डाला ताकि आने वाली पीढियां अंग्रेजों को देवपुरुष और स्वयं को दोयम मानने में संकोच न करें . वे सफल भी हुए और हमारी सोच - प्रक्रिया बदल गयी . गोरी चमड़ी का वैभव हमारी आँखों को चुन्धियाता है , श्यामवर्ण हीनता को जन्म देता है . पिताजी , माँ , बाबाजी की जगह हमारे नौनिहाल डैड ,ममा , ग्रेंपा बुलाते हैं --कुत्तों से डरते हैं और डौगी को गले लगाते हैं . महानगरों में ही नहीं , छोटे-छोटे शहरों - कस्बों में गोबरछत्तों की तरह उग आये अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चांदी काट रहे हैं . हरेक अभिवावक की यही अभीप्सा है कि चाहे पेट काटकर हो या क़र्ज़ लेकर , अपने बच्चों को "पब्लिक स्कूल" में पढ़ाना है ताकि कम से कम ये बच्चे वंचना और तिरस्कार के उस दंश से उबरे रहें जिसका सामना इन अभिवावकों ने ताउम्र किया है . .............. इस षड़यंत्र के कई रहस्यमय परत हैं और आप जितना अन्दर जाने का प्रयास करेंगे , गहराई बढ़ती चली जायेगी . आपाधापी वाली हमारी जिंदगी में इन विषयों पर सोचने के लिए न तो समय है और न आग्रह ! हम तो कीड़े - मकोड़ों के अस्तित्ववाद के अनुयायी हैं . पहले अपनी और उससे उबर गए तो अपने बीबी-बच्चों की प्रगति सुनिश्चित कर मानव-योनि में पैदा होना सफल मान लेंगे . हमें क्या पड़ी है कि उत्तरपूर्व के उन क्षेत्रों की चिंता करें जहाँ आजादी के 64 वर्षों के बाद भी सड़क या रेल की पटरियां  नहीं पहुँचीं हैं और जहाँ के लोगों को हम अभी भी राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल करने को तैयार नहीं . हमारी सुसभ्य तटस्थता हमें विदर्भ - बुंदेलखंड -गोंडवाना के आत्महत्या करते हजारों किसानों का रोदन सुनने से रोकती है , बाढ़ और सूखे से होने वाली त्रासदी हमारी "बेड टाइम स्टोरीज " को दिलचस्प बनाती है और आदिवासियों  का विस्थापन -शोषण हमारे लिए सामाजिक शुद्धिकरण प्रक्रिया का एक हिस्सा मात्र है . इतने सारे पुण्यों का ठीकरा जब हमारे अपने  ही सिर है तो किसी सरकार या शासन या संस्था को कटघरे में लाना कहाँ तक जायज है ?

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