aboojh paheli

     आज कल  मन अक्सर उद्विग्न हो जाता है . बेहद गैर जरूरी और मामूली बातों मे उलझ कर रह जाता हूँ. ईमानदारी, शिष्टाचार, शुचिता, पर-दुःख-कातरता जैसे शब्दों की आज के सन्दर्भ में घटती उपयोगिता और उपादेयता मुझे चिंतित करती है. ऐसा प्रतीत होता है मानो ये शब्द  लफ्फाजी का साधन बन कर रह गए हों जिनका प्रयोग सफेदपोशों  द्वारा गरीबों-वंचितों को वाग्जाल   में उलझाये रखने के लिए किया जाता हो ताकि ये बहुसंख्य श्रमिक अल्पसंख्यक शासक-वर्ग की अनवरत सेवा करते रहें.  ऐसे कई विषय हैं जिनमें गहरे पैठ कर सोचना जोखिम भरा है. सुबह से शाम तक अनेकानेक ऐसे विषय आते रहते हैं. कुछ बानगी देखें......
     अभी मेरे एक परिचित अपने तीन साल के बच्चे को दिल्ली के लब्धप्रतिष्ठ नर्सरी विद्यालयों में प्रवेश दिलाने हेतु एड़ी-चोटी का जोड़ लगाए हैं. पूछने पर गर्व भरे स्वर में दर्जन भर विद्यालयों का नाम गिनाते हैं जहाँ आवेदन डाला है. बालसुलभ उत्साह में यह भी वादा करते हैं कि अच्छे स्कूल में प्रवेश मिल जाने पर इष्ट मित्रों को मांस-मदिरा की  पार्टी दूंगा. अभी पितृत्व की राह में इन सज्जन को कई पड़ाव पार करने हैं और अपनी तमाम उपलब्धियों पर अपने सगे-सम्बन्धियों, मित्रों को खुश करना है. अब देखिये! पुत्र उनका, पैसे उनके, च्वाइस उनकी और पेट में मेरे दर्द हो रहा है! मुझे तो लगता है कि इस प्रकार की एकल अस्तित्ववादी प्रवृत्ति हमारे राष्ट्र के हित में नहीं है. जिस देश के लाखों बच्चे 'मिड-डे मील' के प्रलोभन के बावजूद माध्यमिक शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, उसी देश में सरकारी जमीन पर पनपे अंग्रेजी स्कूलों में कुछ बच्चों को सुसभ्य और अंग्रेजीदां बनाने की अभीप्सा सामाजिक-आर्थिक असंतुलन को बढ़ावा ही देगा. चीन, जापान और रूस की कार्य-संस्कृति और वहां के लोगों की  देशभक्ति  की प्रशंसा करते हम अघाते नहीं परन्तु एक महत्वपूर्ण तथ्य को हम हमेशा (और शायद एक षडयंत्र के तहत ! ) भूल जाते हैं कि प्रगति के सारे सोपान इन देशों ने अपनी मातृभाषा के बल पर तय किये हैं. हम इनसे अपनी तुलना क्यों करें? सूरज को दीया क्यों दिखाएं ?  अरे, हमारे खून में तो गुलामी कूट-कूट कर भरी है. तभी तो हमारे समाज में एक अदने से खाकीधारी सिपाही की 'प्रतिष्ठा' किसी शिक्षक या इंजिनियर या डॉक्टर से अधिक होती है. उसकी कोठी की लम्बाई-चौड़ाई भी साल दर साल उसकी ठसक के मुताबिक़ बढती चली जाती है और हमारे ज्ञानचक्षु मुग्ध होते चले जाते हैं.
      अपने नौनिहालों को हैरी पौटर बाँचते देख  हमारा सीना चौड़ा हुआ जाता है. पर श्रवण कुमार अब हमारे सामान्य ज्ञान की परिधि में नहीं आता. वेलेंटाइन डे, मदर्स डे, फादर्स डे..... आदि कई डे हमारे राष्ट्रीय पर्व बन चुके हैं परन्तु शिक्षक दिवस या विवेकानंद जयंती सर्वथा विस्मृत हैं.
      अभी पीछे एक समाचार आया कि हिंदी के प्रोत्साहन के लिए गठित संसदीय समिति-उप समिति की विभिन्न दफ्तरों में जमकर आवभगत की जाती है और समिति-सदस्यों के स्वागत-सत्कार हेतु पांच सितारा होटलों में लाखों की नदियाँ बहा दी जातीं है. हर साल चौदह सितम्बर को हिंदी अपने ही देश की फाइलों में सजती-संवरती है और अपने भाग्य पर इठलाती भी है.
      सर्दी बहुत है. शोणित  जमने को है. बिजली और बिजली के उपकरणों की उपलब्धता हमारे 'विंटर वेकेशन' को थोड़ा और रोमांटिक बना देती है. सर्द सुबह और  वातानुकूलित कक्ष  में मखमली रजाई के अन्दर छिप कर समाचार पत्र पढ़ना और अपने महानगर में अबकी ठंढ से हुई कम मौतों पर संतोष प्रकट करना हमें एक सुरक्षित-संरक्षित वर्ग में होने का एहसास तो दे ही जाता है....
       मुद्दे कई हैं और मेरी बेचैनी भी अबूझ है. एक शुभचिंतक ने शायद सच ही कहा कि मैं एक विशेष प्रकार के अवसाद, औब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर (obsessive compulsive disorder), से ग्रस्त हूँ और शीघ्र ही मुझे किसी अच्छे मनोचिकित्सक के पास जाना चाहिए.

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