hindi ki sthiti

हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी को माता समान सम्मान देने की प्रवृत्ति साल-दर -साल बढती ही जा रही है.बाकी के ३६४ दिनों मे इस बुढ़िया को पूछने वाला तो क्या, पहचानने  वाला तक कोई नहीं है. सरकारी संरक्षण ने इस जीवंत और प्रतिष्ठित भाषा को इस कदर पंगु बना दिया है कि कलेजा मुँह को आता है. स्वतंत्रता-प्राप्ति के ६३ वर्षों के बाद भी हिंदुस्तान मे हिंदी-दिवस मनाये जाने की बाध्यता समझ से परे है.यह ठीक वैसा ही है कि एक बिल्कुल ही स्वस्थ बच्चे को शैशव से युवावस्था  तक गोद में लिए फिरना और रोने-चीखने की आवाज आने पर एक-दो बूंद दूध उसके मुँह में टपका देना. बच्चे की विकास-यात्रा मे उसके अभिभावकों की भूमिका यहीं तक सीमित होनी चाहिए कि समय-समय पर उसे उपयुक्त आहार मिले,मौसम के अनुरूप पोशाक मिले, बीमारी मे औषधि मिले और सही शिक्षा मिले. परन्तु हिंदी नामक इस बच्चे के अभिभावक इतने साकांक्ष और 'केयरिंग' हैं कि शिशु असमय ही पक्षाघात का शिकार हो गया. इसके ठीक उलट अंगरेजी के अभिभावकों ने उसे विभिन्न झंझावातों से लड़कर आगे बढ़ना सिखाया और उसी का प्रतिफल है कि अंगरेजी के एक प्रतिष्ठित शव्द-कोष के प्रत्येक नए संस्करण में १००-१५० नए शब्द होते हैं जो कि खांटी हिन्दी के देशज शब्द होते हैं. भाषा वही समृद्ध-समर्थ होगी जो जमीनी सच्चाईयों से वास्ता रखती होगी . भला हो संचार क्रांति का और उसमे खेलने वाले खिलाडियों का जिनकी बदौलत हिंदी अब बाज़ार की भाषा बनती जा रही है . बॉलीवुड ने भी इसके प्रचार प्रसार में महती भूमिका अदा की है . सुदूर दक्षिण में भी 'महंगाई डायन' गुनगुनानेवाले लोग आज उपलब्ध हैं. तो चलें, अपने आकाओं से अपील करें कि हिंदी को अब बख्श दें.    

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