मनुष्यता का अख़बार

समाचार पत्र जीवन में आए नये बिहान के सूचक होते हैं। घिस-पिट चुकी जिंदगी को नयापन देने की ख्वाहिश हम सबों की होती है। शायद इसीलिये ताज़ा अख़बार का अपना विशिष्ट आकर्षण होता है। अख़बार के मुख-पृष्ठ पर कोलाहल सा छाया रहता है क्योंकि बीते दिन की अधिकाधिक सनसनीखेज(या फिर रोमांचक कह लीजिये!) वारदातों को मुख-पृष्ठ पर ही समेटने-सहेजने की व्यावसायिक बाध्यता होती है। समाचार का बिकाऊपन ही उसका स्थान सुनिश्चित करता है। समाचार चूँकि निर्जीव होते हैं इसलिये उनमें आपस में हम इंसानों जैसी कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं होती। उनकी नियति सम्पादकीय टीम निर्धारित करती है। जैसे-जैसे हम अख़बार के अंदर के पृष्ठों की ओर जाने लगते हैं, कम बिकाऊ समाचारों से रु-ब-रु होते हैं। लेकिन इनकी अर्थवत्ता कम नहीं होती। यही समाचार हममें ज्ञान और दृष्टि का संचार कर पाते हैं। अगर आप रेलगाड़ी के जेनरल डब्बे में यात्रा करते हुए अहले सुबह अख़बार ख़रीद लेने की ऐतिहासिक भूल करते हैं तो पायेंगे कि आपके समस्त ज्ञान-पिपासु सहयात्री औपचारिकता के अनावश्यक आवरण को त्याग "पहले पन्ने" को हड़पने की जुगत में लग जाते हैं। अब इस पहले पन्ने पर इतना सारा मसाला होता है कि मानवीय प्रतिक्रिया का जन्म ले लेना अवश्यंभावी हो जाता है। पक्ष-विपक्ष की रेखाएं खिंच जाती हैं और एक न ख़त्म होने वाले बहस का जन्म हो जाता है। आप किस पाले में हैं ये आपका निर्णय है। निष्पक्ष निर्णायक का पद हमेशा रिक्त होता है। आप स्वयं को वहाँ शोभायमान कर सकते हैं। बड़े पद के बड़े ख़तरे होते हैं इसलिये थोड़ा सचेत रहना आवश्यक। वरना परिणाम आपको ही भुगतने होंगे। लाभ और हानि की दृष्टि मस्तिष्क में होती है। अगर आप धनात्मक सोच रखते हैं तो पायेंगे कि झिंगुरों-खटमलों से त्रस्त आपकी(और समस्त सहयात्रियों की) यात्रा अचानक रोचक हो गयी है। बिना लवण के भोजन में मानो जैसे किसी ने मीट मसाला और देगी मिरच का तड़का लगा दिया हो ! थोड़े समय के लिये ही सही और आभासी ही सही, आपको एक सुखानुभूति होगी कि आप एक सामाजिक प्राणी हैं और आपके अंदर का संवाद जीवित है। जब से हम पढ़-लिख गये हैं और फ्लैटों-सोसाइटियों में रहकर आधुनिक होने की घोषणा करने लग गये तब से हमारे संवाद ने आत्म-हत्या कर ली। हमने अख़बार के मुख-पृष्ठ पर अपनी जगह बनाने की जद्दो-ज़हद में चौथे-पाँचवें-सातवें पन्ने की गुमनामी में खोये विभूतियों और आदर्शों की सुध लेनी छोड़ दी........

विमर्श इतना रोचक हो चला कि आपको पता भी नहीं चला और ट्रेन प्लैटफॉर्म पर आ धमकी। आप विदा लेते हैं उन अपरिचित चेहरों से जिनसे शायद दुबारा मिलना नहीं हो पायेगा। एक कसक सी, एक टीस सी आपके मन में है -- कुछ खो देने का भाव !

दैनिक भाग-दौड़ के बीच हमें इतना वक़्त ही नहीं मिलता कि हम अपनी जिंदगी में घुस आई रिक्तता और तिक्तता को पहचान सकें। गर्मियों में निर्जन पथ पर मीलों चलने के बाद एक बूढ़ा बरगद मिल जाये तो जान में जान आती है। वहीं एक घड़े में रखा शीतल जल आपकी सुषुप्त संवेदना को सिंचित कर जाता है। और कुछ न सही, अगर हम थके पथिकों के लिये छाया और प्यासों के लिये शीतल जल की भूमिका में आ जाएं तो यह दुनिया रहने की एक बेहतर जगह बन सकती है। हमें पता है कि प्यार और स्नेह बरसाने में हमारा कोई सानी नहीं तो फिर देर किस बात की ? 

 हम अपने व्यक्तित्व-रूपी अख़बार के संपादक आप हैं। मुख-पृष्ठ पर, अपने चेहरे पर, किन भावों को स्थान देना है, यह हमें स्वयं तय करना होगा। अगर हमने वहाँ कोलाहल और उत्तेजना को स्थायी रूप से चस्पाँ कर दिया तो परिवार के अंदर और बाहर हमारा आकर्षण समाप्त होना तय है। वहीं विनम्रता और स्निग्धता के भाव हमारी स्वीकार्यता बढ़ाएंगे। हमारे सम्पादकीय पृष्ठ, अर्थात हृदय और मस्तिष्क में करुणा, दया, प्रेम और पर-दु:ख-कातरता स्थायी निवासी हों, सामंजस्य और समावेश के प्रति हमारा दृढ़ आग्रह हो।

                                 ~ नीरज पाठक

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