बलात्कार का मनोविज्ञान

   आपके हृदय और मस्तिष्क दोनों जीवित हों ,क्रियाशील हों, तो जीवन में अनेकानेक कठिनाईयाँ झेलनी पड़ेंगी इन दोनों को क्रियाहीन कर दो तो ये धरती स्वर्ग से बेहतर दिखेगी, आनंद-परमानंद की प्राप्ति होती रहेगी। 

   दैनिक जीवन में ऐसे कई प्रकरण होते हैं जो मुझे व्यथित कर जाते हैं। हर बार कर्ता अलग होता है परन्तु पीड़ा में समानता रहती है। हर बार कर्ता की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक पृष्ठभूमि अलग-अलग होती है परन्तु  दंश की एकरूपता बनी रहती है। और ऐसा भी नहीं है कि इन घटनाओं को घटने देने के लिये आपको कर्बला या कुरुक्षेत्र जाने की आवश्यकता हो --ये घटनाएं घटती रहती हैं ,परिवार में, कार्यस्थल पर, पड़ोस में और सार्वजनिक स्थलों पर।

   16 दिसंबर की घटना मानो नाकाफी हो, हमारी अबोध बच्चियाँ भी बलात्कार की शिकार हो रही हैं। दो-तीन वर्ष पहले खबर आई थी कि एक 75 वर्ष की वृद्धा को भी कुछ किशोर मनचलों ने हवस का शिकार बनाया था। पाशविकता धर्म, सम्प्रदाय, उम्र, क्षेत्र, रंग आदि के आधार पर विभेद नहीं करती। और शायद लिंग के आधार पर भी नहीं ! कहने को पितृसत्तात्मक हमारे इस समाज में पुरुष भी रोज बलात्कार के शिकार होते हैं। जब हमारी भावनाएं भयंकर रूप से आहत होती हैं और हम लोकलज्जा या पुरुषार्थ या अहंकार की वजह से अपनी व्यथा भी किसी को नहीं सुना पाते, वैसी स्थितियाँ हमें मर्मांतक पीड़ा देती हैं परन्तु न्यायशास्त्र में इनके लिये शायद कोई दंड-विधान है ही नहीं। और हो भी तो उसके उपयोग की संभावना नगण्य है।   

    रोज़ शाम कार्यालय से निकलने के पश्चात राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर दो बार पंक्ति में खड़ा होता हूँ। एक बार स्टेशन परिसर में प्रवेश हेतु और दूसरी बार ट्रेन में प्रवेश हेतु। अमूमन रोज ही एक ही प्रकार के दृश्य से रु-ब-रू होना पड़ता है। ईश्वर, कानून और अंतरात्मा का लिहाज़ करने वालों की एक अनुशासित पंक्ति होती है और इन अक्षम लोगों का मजाक उड़ाते चंद सक्षम लोगों का समूह होता है जो बलात् प्रवेश को पौरुष का परिचायक मानता है। आपको अगर अपनी शिक्षा और तहज़ीब का गौरव हो तो एकबार इन्हें इनकी गलती बताएं --फौरन ही आपको आपकी औकात बता दी जायेगी। और तो और ,आपके सहयात्रियों की निस्पृहता आपको अपनी ही नजर में 'बावला' साबित कर देगी। सुसभ्य समाज, उच्च शिक्षा, उच्‍चतर प्रतिव्यक्ति आय, वातानुकूलित परिवेश के बीच यह सब कुछ चलता रहता है निर्बाध गति से, बगैर 'हेडलाइन' बने !  पर भारत तो विशाल है, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप कामाख्या तक। अनेक विषमताओं को अपने अंतर्मन में समेटे। इस विशाल राष्‍ट्रराज्य में रोज़ लाखों ऐसी घटनाएं घटती होंगी जो लोगों के हृदय को तो विदीर्ण कर जाती होंगी परन्तु उनका लेखा-जोखा पुलिस चौकियों और पंचायतों में दर्ज नहीं हो पाता होगा। 
 
    संक्रमण के इस दौर में हृदय और मस्तिष्क को जीवित रखकर जिंदगी जीने वाले 'अक्षम' लोगों पर एक बड़ी जिम्मेवारी है कि वे अपने बच्चों को मूल्यों की जानकारी दें, उन्हें जीवन के विरोधाभासों के बीच सामंजस्य स्थापित करने लायक बनाएं और समावेशी वातावरण का निर्माण करें। ऐसा तभी संभव हो पायेगा जब हमारे व्यक्तिगत आचरण में इन तत्वों-अवयवों का समावेश हो जायेगा। अगर हम इस बिन्दु पर असफल हुए तो समाज को बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा।  परिवार से बड़ा कोई विद्यालय नहीं हो सकता और माता-पिता से बेहतर कोई शिक्षक नहीं। बाज़ारवाद ने हममें आक्रामकता भर दी है, प्रतिद्वन्द्विता का भाव डाल दिया है परन्तु  हमसे हमारी मानवता छीन ली है। तात्कालिक और क्षुद्र फायदों के लिए हम दूसरों की पीठ पर पैर रखकर आगे बढ़ने को प्रयत्नशील रहते हैं। कम से कम समय में अधिकाधिक वैभव अर्जित करने की लालसा घोटालों और महाघोटालों की पृष्ठभूमि बनती है। बलात्कार का मनोविज्ञान हममें ही पनपता है और हमें ही इसका शमन करना होगा।

                                                    ~ नीरज पाठक
 
      

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