खेलों की राजनीति

पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध ने यूँ तो हमारे जीवन के अधिकांश क्षेत्रों को अपना ग्रास बना लिया है परन्तु क्रिकेट में इनके दखल को अधिक तीव्रता और सहजता के संग महसूस किया जा सकता है. मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आम आदमी की बेबसी यही है कि वह क्या खाए-क्या पीये-क्या पहने-क्या देखे-क्या सुने ....... आदि विषयों पर निर्णय का अधिकार उसके पास कतई नहीं होता.  एक अदृश्य बाजारू ताकत इन चीजों का निर्धारण करती है. और जैसे-जैसे हम आर्थिक प्रगति हासिल करते चले गए,वैसे-वैसे ही इस अदृश्य ताकत की संप्रभुता और शक्ति-सम्पन्नता बढती चली गयी. आज हमारे प्रत्येक पल-छिन पर इसका सम्पूर्ण अख्तियार  है. भारत जैसे विकासशील  देश में -जहाँ निर्धनता, बेरोजगारी , अवसरहीनता मुंह बाए खड़ी हैं- साल के तीन सौ पचास दिनों तक क्रिकेट मैचों का आयोजित-प्रायोजित होना एक वीभत्स षड्यंत्र से इतर कुछ भी नहीं हो सकता. मुट्ठी भर लोग , जो पैसे की महत्ता को जानते हैं और पैसों से पैसा बनाने के सूत्र का स्वामित्व रखते हैं, करोड़ों असहाय लोगों को क्रिकेट क़ी अफ़ीम की खुराक चटा-चटा   कर अपने व्यवसाय और ऐश्वर्य को विस्तार दे रहे हैं. क्रिकेट क़ी एकरसता लोगों का मोहभंग न कर दे इसलिए बीच-बीच में बड़ी ही निष्ठा और सैन्य-सूक्ष्मता के संग चीयर-लीडर्स और अवकाश-प्राप्त सिने-तारिकाओं जैसे अवयवों का 'तड़का' लगाया जाता रह्ता है ताकि लोग मैच भी देखते रहें और चटखारे भी लेते रहें. क्रिकेट के ठीक उलट , हॉकी और फुटबॉल जैसे देशी खेलों का जायजा लिया जाये तो आठ-आठ आंसू रोने को मजबूर हो जायेंगे हम. राष्ट्रीय खेल हॉकी क़ी स्थिति तो बद से बदतर  ही होती चली जा रही है. हॉकी वैसी महारानी है जिसे महाराजा ने राजमहल में रहने की अनुमति तो दे दी है परन्तु दाम्पत्य के सारे सुखों-अधिकारों से वंचित कर रखा है. और इसमें दोष सिर्फ महाराजा का नहीं है. दरअसल, हम इतने प्रतिक्रियाशून्य और संवेदनहीन हो चुके हैं कि महाराजा के सारे व्यभिचार को न केवल सहर्ष स्वीकार करते हैं बल्कि उनकी डुगडुगी भी बजाते हैं. ऐसा नहीं होता तो हमारे देश के नौनिहाल ध्यानचंद,मिल्खा सिंह,पी.टी.उषा ,बछेंद्री पाल,अभिनव बिंद्रा,बाइचुंग भूटिया,विजेंद्र सिंह जैसे व्यक्तित्यों से भी प्रभावित होने  की कोशिश करते. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो पा रहा है.  बच्चा होश में आते ही प्लास्टिक का बल्ला और प्लास्टिक की गेंद लेकर सचिन बनने को सड़क पर निकल आता है. परिवारीजन भी अभिभूत हो जाते हैं. लेकिन, सचिन के सचिन बनने की यात्रा के पीछे संघर्ष,अनुशासन,समय-बद्धता और दृढ़ता की कहानी से हम बच्चों को अवगत नहीं करा पाते हैं.  विराट कोहली अपने धमाकेदार प्रदर्शनों की वजह से अभी बहुत ही लोकप्रिय हो रहे हैं परन्तु कुछ ही लोगों को मालूम होगा कि दिल्ली की तरफ से कर्णाटक के विरुद्ध रणजी-ट्रॉफी मैच में जब उन्होंने नब्बे रनों की पारी खेली तब उन्हें पता था कि उसी सुबह उनके पिता की मृत्यु हो चुकी थी. अपने लक्ष्य को हर कीमत पर हासिल करने और तमाम बाधाओं-अडचनों को नजरंदाज करने वाले इस जज्बे को मेरा सलाम. आइये हम अपने बच्चों को इन पक्षों से भी अवगत कराएँ.                

Comments

Popular Posts