उन्नति या अवनति

इसे महज संयोग कहा जाए कि पिछले एक सप्ताह में हमारे जीवन के अभिन्न अंग रहे "गौरैया"  पर हिंदी पत्रों में, खास कर जनसत्ता में , अच्छा-खासा और सम्यक विमर्श हुआ है . आधुनिकता के दंभ और बढ़ती क्रय-शक्ति ने हमारे जीवन से कई चीजों का लोप करवा दिया. माता -पिता जैसी प्रजाति जब विलुप्त हो चुकी तो एक छोटी , कमजोर, बेबस-लाचार चिड़िया "गौरैया" की  क्या बिसात ! अपने ही जीवन के चार दशकों में इतने सारे रंगों और परिवर्तनों को आत्मसात कर चुका  हूँ (अथवा करने को मजबूर किया जा चुका हूँ) कि वास्तविक और आभासी का फर्क मिट सा गया है . मैं  आज भी मुस्कुरा देता हूँ उन दिनों को याद करके जब बालसुलभ उत्साह के साथ मैं  गौरैयों को कैद करने के अभियान पर निकल पड़ता था . किराये के मकान की उस छोटी सी कोठरी में -- जिसमें  एक दरवाजा और दो खिड़कियाँ  हुआ करती  थीं - गौरैया का आना मेरे अन्दर के आखेटक को जीवित कर देता था . परन्तु यह आखेटक अहिंसक था . इसकी अभीप्सा शिकार की हत्या करना नहीं बल्कि उसे अपने हाथों  में पकड़ कर सहलाना- पुचकारना-दुलारना हुआ करती थी . लेकिन शिकार आखेटक के इन पवित्र मनोभावों से सर्वथा  अपरिचित होता . मैं  जब दरवाजे-खिडकियों को बंद  करने लग जाता था तब गौरैये की व्याकुलता बढ़ जाती थी और उसकी चढ़ी हुई सांसें  उसकी गर्दन पर स्वतः दृष्टिगोचर हो जाती थीं. अब उसे पकड़ने को मैं  उछलने-कूदने लगता था और वो भी एक ताख से दूसरे ताख , एक कोने से दूसरे कोने और ऊँची जगहों पर फुदक-फुदक कर मुझे छकाने को बैठ जाया करती थी . संग्राम अब जोर  पकड़ चुका था . मेरे हाथों में खादी का बड़ा तौलिया आ चुका था . मै हर कीमत पर उसे पकड़ना चाहता था और वो मेरी चुनौतियों का बखूबी सामना कर रही  थी. मै दांव फ़ेंक-फ़ेंक कर लथपथ हो जाया करता और वो थी कि  हार मानने का नाम नहीं ले रही थी. मेरी आक्रामकता बढती  चली जाती और उसके बरक्स जीवन-रक्षा की नयी तरकीबें भी उसे सूझती चली जाती. अब जब कि मैं अपनी फतह को लेकर आश्वस्त हो चला था, रोशनदान की पुरानी  जाली के एक छोटे से छेद ने उसे जीवन-दान दे दिया और वह उड़नछू हो गयी  . सौ ग्राम के उस चिड़िये की जिजीविषा, अदम्य साहस  और हार न मानने  की प्रवृति ने मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में भी सदैव संघर्षरत रहने की प्रेरणा तो दे ही दी................ 
बचपन में अपने ही परिवार में चीटियों को चीनी देने,कबूतरों को दाना देने और गर्मियों में पथिकों के लिए शीतल जल की  व्यवस्था करने की  परंपरा भी  देखी है. इसके पीछे उपकार करने अथवा मृत्योपरांत स्वर्ग जाने की  लालसा नहीं वरन अन्यान्य प्रजातियों पर मनुष्य की निर्भरता को स्वीकार करने का बोध ही रहा होगा. परंतु कालांतर में इस स्वीकार बोध की जगह दर्प ने ले ली. "एकोहम  द्वितीयो नास्ति"  आज की तारीख में हमारा घोषवाक्य बन चुका है और अंग्रेजी  शिक्षा ने मूल्यों और आस्थाओं का अनादर करने में हमें निपुण बना दिया है . आज के बच्चे अपनी मातृभाषा में बोलने से भी हिचकते हैं . हिंदी के प्रति मेरा आग्रह मुझे भी नवधनाढ्यों  और सुसंस्कृत सज्जनों के समक्ष "बेचारे" के रूप में प्रस्तुत कर ही जाता है. अभी कल की ही बात है जब मैंने परिचितों-मित्रों-रिश्तेदारों को भारतीय नव-वर्ष (विक्रम संवत २०६९) की शुभकामनाएं प्रेषित की तो उनमें से कुछ इस अनपेक्षित सूचना से बिस्मित हुए. वलेंताईन डे अथवा फ्रेंडशिप डे की सूचना बाजारवाद ने चारों ओर फैला दी है. प्रगति तो हमने करली , आयें थोडा सा आत्मावलोकन करें.         

Comments

Popular Posts