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बरेली में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के कुछ सौ पदों की भर्ती-परीक्षा में लाखों नवयुवकों का एकत्रित होना और उनका ,व्यवस्था-सम्बन्धी असुविधाओं वजह से आकुल होकर , विद्रोही तेवर अपना लेना एक अतिशय गंभीर संकेत है जो हमारे राष्ट्र-राज्य के ताने-बाने को  छिन्न-भिन्न कर देने तक का सामर्थ्य रखता है.इसे केवल दुर्घटना या समाचार मान बैठना एक ऐतिहासिक भूल होगी क्योंकि इस घटना के अनेकानेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निहितार्थ हैं. सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष संकेत तो यह है कि बेरोजगारी और अवसरहीनता इतना भयानक रूप अख्तियार कर चुकी है कि जमादार-चौकीदार-खानसामा आदि पदों के लिए भी उच्च-शिक्षित और काबिल बच्चे हजारों-लाखों की संख्या में आवेदन करते हैं. आंकड़ों की चाहे जितनी भी बाजीगरी हम कर लें पर इस तरह के प्रकरण हमारे आर्थिक-स्वास्थ्य की रुग्णता ही दर्शाते हैं. हमारी बहुत सारी समस्याएं हैं और वे एक दूसरी से इस कदर उलझी-लिपटी हैं कि उन्हें अलग-अलग करके देखना बहुत ही कठिन और चुनौती भरा कार्य  है. बढ़ती जनसंख्या और निर्धनता में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है . यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि पिछले साठ वर्षों में हमारी कोई उपलब्धि नहीं रही .परन्तु समाज के प्रत्येक वर्ग का एक समान विकास नहीं हो पाया .निर्धन और अधिक निर्धन हो गए. फलतः जनसंख्या-स्थिरीकरण के हमारे सारे प्रयास धरे-के-धरे रह गए और हमारी महत्वाकांक्षी योजनायें जमीनी बदलाव लाने में असमर्थ  रहीं. बहुत ही सामान्य सी लगनेवाली यह बात प्रजातंत्र के भारतीय स्वरुप को नित्य-प्रतिदिन आघात पहुंचाती है. असंतृप्त मन और खाली पेट के साथ करोड़ों भारतीय एक रुपये किलो चावल और मुफ्त साड़ी-कम्बल आदि प्रलोभनों में फंसकर लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में अपने सबसे बड़े हथियार का दुरुपयोग कर आते हैं . सत्ता पा लेने का रास्ता जब इतना सरल प्रतीत हो तो भावी उम्मीदवारों के मन में पात्रता या सच्चरित्रता जैसे अवयवों के प्रति आग्रह या फिर अपने आप को जिम्मेदार साबित करने की चेष्टा करने का भाव आवश्यक नहीं रह जाता . और फिर यहीं से शुरू होती है कम से कम समय में अधिक से अधिक संपत्ति जोड़ लेने की अंधी दौड़ . कैंसर से भी अधिक त्वरित विस्तार पाने को लालायित यह तृष्णा मानवीय संवेदना की हत्या कर पुष्पित-पल्लवित होती है . दवाओं से लेकर दूध और लौकी तक में जहर घोल हम भौतिक ऐश्वर्य के नए -नए कीर्तिमान गढ़ने लग जाते हैं . इस विकास यात्रा में प्रतिद्वंदियों या अवरोधों का होना हमें बिल्कुल अस्वीकार्य होता है , इसलिए हम उन्हें  शीघ्रातिशीघ्र विदेशी स्वचालित यन्त्र से अथवा सुपारी देकर मैदान  से बाहर कर देते हैं .  आसान विकल्पों को अपना लेना हमेशा सरल-सहज होता है . जनता भी समाज के प्रतिष्ठित और प्रभुत्वशाली लोगों के आचरण का अनुकरण करने को विवश होती है . कालांतर में अनुकरण की ये प्रक्रिया सर्वस्वीकार्य हो जाती है जोकि एक वीभत्स छवि प्रस्तुत करती है . समय आ चुका है कि हमारे समाजशास्त्री और नीतिनिर्माता सामाजिक विचलन की इस स्थिति को दूर करने का भगीरथ प्रयास आरम्भ कर दें . 
जनता भी यह माने कि नौकरी देना केवल सरकार का दायित्व नहीं हो सकता . स्वनियोजन के क्षेत्र में हमने अभी शुरुआती  कदम भी नहीं उठाये हैं विशाल मानव संसाधन का समुचित दोहन किये बगैर राष्ट्र प्रगति और आत्मनिर्भरता के सपने नहीं संजो सकता . बदलाव हमें अपनी मानसिकता में लाना होगा .       

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