दो बड़े लोकतंत्रों का अन्तर

अमेरिका में ओबामा की जीत के साथ ही भारत में भी चुनावी मौसम का आगाज़ हो गया है। ओबामा की जीत ऐतिहासिक महत्व की है क्योंकि उसने एक पद-दलित समुदाय के सदस्य को बादशाह बना दिया । यंत्रणा, उपेक्षा और अवहेलना की सदियों पुरानी गाथा मिटी भी तो विश्व -सिरमौर के प्राचीर पर ! यह निश्चय ही एक सुखद परिवर्तन है । परन्तु इस उपलब्धि की प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि परिवर्तन वह जनता लाई है जो अपने राष्ट्र-राज्य के सामरिक, भू-राजनीतिक और सांस्कृतिक हितों की अनदेखी क्षुद्र व तात्कालिक स्वार्थों के लिए क़तई नहीं कर सकती। अत: हम यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि यह परिवर्तन सुविचारित और स्थाई है तथा इसमे लोच अथवा विचलन की कोई गुंजाईश नहीं। परन्तु दुर्भाग्यवश भारत में ऐसा कभी नहीं होता। स्वतंत्रता प्राप्ति के साठ वर्षों के बाद भी हमारे मतदाताओं की कोई परिपक़्व विचारधारा नहीं बन पाई। हम दो रुपये किलो चावल या एक धोती या मदिरा के एक पाउच या फ़िर आरक्षण के झुनझुनों पर देश का भविष्य निर्धारित करते हैं। विकास, निर्धनता , अशिक्षा , किसानों की आत्म-हत्या , बेरोजगारी , आतंकवाद, उग्रवाद, बाढ़ , सूखा आदि ज्वलंत मुद्दों पर सोचने का जोखिम हम नहीं उठाते और न ही पाँच साल के बाद अपने दरवाजे पर आए सत्ता-लोलुप प्रत्याशियों के अन्दर कोई कर्तव्य-बोध पैदा कर पाते। भारत और इंडिया के बीच की बढ़ती खाई तथा क्षेत्रवाद के विषाणु भारतीय संघ के ताने-बाने को उजाड़ने पर आमादा हैं, पर फ़िक्र करने की फुर्सत कहाँ!

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