हिंदी दिवस के सरकारी अनुष्ठानों में परोसे जाने वाले सुस्त-चाल कार्यक्रम और उबाऊ,घिसे-पिटे भाषण हिंदी की दशा सुधारने की बजाय एक घुटन-कोफ़्त-असहजता के वातावरण का निर्माण करते  हैं. मेरी मानो तो इस प्रथा को ही समाप्त कर देना चाहिए . किसी भाषा की समृद्धि इस बात से झलकती है कि उसका प्रयोग कितने लोग करते हैं, उसमें  कितनी पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं और उस भाषा में होने वाले मूल रचना-कर्म की स्थिति क्या है. साल के एक दिन समारोह आयोजित कर लेने से हमें कुछ हासिल होने वाला नहीं.

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