रुचिका मामले ने एक बार फिर पूरे देश की मानसिकता को झकझोड़ कर रख दिया है। एक प्रभावशाली पुलिस अधिकारी की स्वेच्छाचारिता एवं चारित्रिक दुर्बलता ने न केवल एक भविष्णु व महत्वाकांक्षी किशोरी को आत्महत्या करने को विवश किया बल्कि उसके भाई और पिता को यंत्रणा और षड़यंत्र के अनेकानेक प्रयोगों का शिकार भी बनाया जो कि राठोर और उसके मातहतों ने अपनी खाल बचाने के लिए भयमुक्त होकर किये। उन्नीस वर्षों के बाद जो फैसला आया है वह निश्चित तौर से भावी दुष्कर्मियों एवं पेशेवर अपराधियों के आत्मविश्वास में वृद्धि लायेगा। अब जब कि समाज के हर तबके के प्रबुद्ध और संवेदनशील लोग इस हास्यास्पद स्थिति के विरुद्ध आवाज उठाने को संकल्पित हैं, जरूरत है कि कानूनी प्रावधानों में आमूल-चूल बदलाव लाया जाये ताकि बलात्कार और स्त्री-शोषण जैसे जघन्य अपराधों के लिए न्यूनतम उम्र-कैद कि सजा प्रस्तावित हो।

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