भ्रष्टाचार का कारण
मैं एक कमजोर इंसान हूँ इसलिए भगवान से - और भगवान से इतर बहुत सी चीजों से - बहुत ज्यादा डरता हूँ. प्रेमचंद ने भी शायद अपनी किसी रचना में इस बात का उल्लेख किया है कि आस्तिकता भय की जमीन पर पनपती है. अपने इस ६३ साल के आजाद देश में अपने जैसे डरपोकों की संख्या कम हो चली है. नित-नूतन सामने आने वाले अरबों-खरबों के घोटाले बढ़ते शौर्य के नए-नए किस्से गढ़ते हैं. नियम , कानून, मर्यादा,शील आदि मानव-निर्मित शब्दों/मूल्यों का स्थान आस्था और धर्म के बाद ही आ सकता है. पाकीज़ा फिल्म का लोकप्रिय गाना 'प्यार किया तो डरना क्या .......पर्दा नहीं जब कोई खुदा से, बन्दों से पर्दा करना क्या ..........' भ्रष्टाचार में लिप्त शूरवीरों को उत्साहित- प्रेरित करता रहता है. घोटालों का घटना, उनका सामने आना और कुछ महीनों-सालों के बहस के बाद उनका हमारी स्मृति-पटल से मिट जाना एक नियमित, रूटीन सी चीज बन कर रह गयी है. लेकिन बड़ा प्रश्न यह उभर कर सामने आता है कि भूख,तृष्णा,लालच,निर्लज्जता की पराकाष्ठा क्या है? एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रूपये इस महेंगाई के ज़माने में भी इतनी बड़ी राशि है जिससे भारतवर्ष की स्वास्थ्य सेवाओं को 'स्वस्थ' किया जा सके , अँधेरे में जीने और मरने को अभिशप्त तीन लाख गांवों को रोशनी प्रदान की जा सके या फिर पूरे देश में सबको प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक संख्या में प्रवीण शिक्षकों की नियुक्ति की जा सके! जिस देश की अस्सी करोड़ जनता कुपोषण-भुखमरी-अशिक्षा-अवसरहीनता की शिकार हो वहां इतने बड़े पैमाने पर घोटालों का घट जाना जघन्यतम अपराध है और इसकी सजा भी जघन्य ही होनी चाहिए. लेकिन यहाँ कौन किसे सजा देगा? एक राष्ट्र के रूप में भ्रष्टाचार,अनैतिक कार्यों और अनियमितताओं में हमारी संलिप्तता बढती ही जा रही है. बिजली कनेक्शन , पासपोर्ट बनाने, राशन कार्ड बनाने से लेकर संसद, विधान सभा,पंचायत की टिकट खरीदने तक हम सुविधा शुल्क देकर - अपनों की पीठ पर अपने पैर रखकर- आगे बढ़ जाते हैं. पद, प्रतिष्ठा और अवसरों की उपलब्धता बढती है तो लोलुपता भी उसी अनुपात में बढती चली जाती है. अभी पिछले दिनों एक समाचार पढने को मिला क़ि दिल्ली जल बोर्ड के एक क्लर्क के घर से पचपन लाख रूपये बरामद हुए. इस समाचार को पढने के बाद रातों-रात करोडपति बन जाने की हसरत पालने वाले अधिकारियों-उच्चाधिकारियों-ठेकेदारों-बिल्डरों-लोकसेवकों के मन में जल बोर्ड का यह कर्मचारी प्रेरणा-स्त्रोत बन गया होगा. आर्थिक उदारीकरण ने मुट्ठी भर लोगों को तो चकाचौंध पैदा करने वाला वैभव दे दिया पर उस चकाचौंच का अनुसरण करने वाले पीछे रह गए . नीति-सम्मत विधियों से सभी बढ़ें,प्रगति करें -- इसके लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को मिलकर आत्म-मंथन करने की आवश्यकता है. गरीब की जोडू को प्रताड़ित करते चले जाने क़ि प्रथा रोकनी होगी.
नीरज पाठक, जी-४५३-सी, राज नगर-२, नयी दिल्ली-११००७७
नीरज पाठक, जी-४५३-सी, राज नगर-२, नयी दिल्ली-११००७७
"लेकिन यहाँ कौन किसे सजा देगा" -
ReplyDeleteबहुत सुंदर समसामयिक, सटीक और प्रेरक आलेख लिखा है आपने नीरज जी समस्या दिन प्रतिदिन जटिल होती जा रही है - बधाई और शुभकामनाएं
अत्यंत सार्थक व सोचने को बाध्य करता लेखन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट
आभार
शुभ कामनाएं
सार्थक चिन्तन से उपजा सुन्दर आलेख। कुछ सोचने पर मजबूर करता है सशक्त लेखनी के लिये साधूवाद।
ReplyDeleteवाजिब चिंतन, मगर जिस गाने का आपने जिक्र किया है वो 'मुग़ल-ये-आजम' का है.
ReplyDeleteआदरणीय,
ReplyDeleteआज हम जिन हालातों में जी रहे हैं, उनमें किसी भी जनहित या राष्ट्रहित या मानव उत्थान से जुड़े मुद्दे पर या मानवीय संवेदना तथा सरोकारों के बारे में सार्वजनिक मंच पर लिखना, बात करना या सामग्री प्रस्तुत या प्रकाशित करना ही अपने आप में बड़ा और उल्लेखनीय कार्य है|
ऐसे में हर संवेदनशील व्यक्ति का अनिवार्य दायित्व बनता है कि नेक कार्यों और नेक लोगों को सहमर्थन एवं प्रोत्साहन दिया जाये|
आशा है कि आप उत्तरोत्तर अपने सकारात्मक प्रयास जारी रहेंगे|
शुभकामनाओं सहित!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
सम्पादक (जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
(देश के सत्रह राज्यों में सेवारत और 1994 से दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन, जिसमें 4650 से अधिक आजीवन कार्यकर्ता सेवारत हैं)
फोन : 0141-2222225 (सायं सात से आठ बजे के बीच)
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